April 17, 2023

निरंकुश संवैधानिक पदों के बारे में एक अनुस्मारक

चर्चा में क्यों?

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दो हालिया टिप्पणियों ने भारत में विभिन्न संवैधानिक अधिकारियों की स्वतंत्रता की अवधारणा पर सीधा असर डाला है -'सेना बनाम सेना' तथा मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और चुनाव आयुक्तों (ECs) की नियुक्ति।

सर्वोच्च न्यायालय का पक्ष 

  • भारत के संवैधानिक निकायों की स्वतंत्रता के आवश्यक गुण में कोई कमी नहीं होनी चाहिए, जैसा कि संविधान के विभिन्न प्रावधानों में बताया गया है।  
  • सरकार द्वारा सत्ता के मनमाने इस्तेमाल को रोकने के लिए लोकतंत्र में रोक और संतुलन की व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
  • 'सेना बनाम सेना' मामले की सुनवाई में, न्यायालय ने राज्य की राजनीति में राज्यपालों द्वारा निभायी जा रही सक्रिय भूमिका पर अपनी "गंभीर चिंता" व्यक्त की, यह देखते हुए कि राज्यपालों का राजनीतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा बनना निराशाजनक है। 
  • भारत के चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए, न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और चुनाव आयुक्तों (ECs) की नियुक्ति में उपयुक्त नामों का सुझाव देने के लिए एक समिति बनाने के कार्यपालिका के विवेकाधिकार को इन संवैधानिक पदों के लिए समाप्त कर दिया। 

स्वतंत्र संस्थानों की आवश्यकता क्यों ?

  • लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार द्वारा सत्ता के मनमाने उपयोग को रोकने के लिए रोक और संतुलन की व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
  • भारत का लोकतंत्र लोक सेवा आयोग, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG), ECI, वित्त आयोग और अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST) तथा पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोगों जैसे विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों के लिए स्वतंत्रता प्रदान करता है। 
  • भारत की संविधान सभा ने बिना किसी कार्यकारी हस्तक्षेप के राष्ट्रीय महत्व के क्षेत्रों को विनियमित करने के लिए ऐसे स्वतंत्र संस्थानों की आवश्यकता को मान्यता दी थी। यह आवश्यक है कि ऐसे संवैधानिक निकायों को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाए, ताकि वे बिना किसी भय या पक्षपात के और राष्ट्र के व्यापक हित में कार्य कर सकें।
  • उन्हें स्वतंत्रता प्रदान करने की इस अवधारणा के प्रति ही संविधान यह प्रावधान करता है कि इन संस्थाओं के प्रमुख व्यक्तियों की नियुक्ति कैसे की जाए।
  • स्वतंत्रता का एक आवश्यक गुण किसी निहित स्वार्थ से प्रभावित नहीं होना और कार्यपालिका के दबाव का सामना करने की क्षमता है।
  • भारत के राष्ट्रपति को सभी संवैधानिक प्राधिकरणों की नियुक्ति का अधिकार देते हुए संविधान निर्माताओं ने उन संस्थाओं को ध्यान में रखा था जिनकी स्वतंत्रता देश के लिए सर्वोपरि है और इन प्राधिकरणों की स्वतंत्रता को कार्यपालिका की मनमानी से कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है। 
  • संविधान निर्माताओं ने प्रधानमंत्री (अनुच्छेद 75), भारत के महान्यायवादी (अनुच्छेद 76), वित्त आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति (अनुच्छेद 280) राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
  • लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्य (अनुच्छेद 316) तथा भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी (अनुच्छेद 350-B), ECI और EC की नियुक्ति (अनुच्छेद 324) राष्ट्रपति, 'संसद द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी भी कानून के अधीन' करेंगे।
  • हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 124 और 217) के न्यायाधीशों, CAG (अनुच्छेद 148) की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को अधिकृत करते समय 'राष्ट्रपति द्वारा उनके हस्ताक्षर और मुहर के तहत वारंट द्वारा नियुक्त किया जाएगा', शब्दों का प्रयोग किया जाता है तथा राज्यपाल की नियुक्ति के लिए (अनुच्छेद 155)। अनुच्छेद 338, 338(A) और 338(B) में इसी तरह के शब्दों का इस्‍तेमाल किया गया है, जो राष्ट्रपति को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग के राष्ट्रीय आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए अधिकृत करते हैं। हालाँकि, मूल अनुच्छेद (अनुच्छेद 338) में कहा गया था कि 'अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाने वाला एक विशेष अधिकारी होगा'।
  • सुप्रीम कोर्ट ने एन. गोपालस्वामी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में कहा है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है तथा सभी मामलों में कार्यपालिका का प्रमुख होता है। हालांकि, ऐसे मामलों में जहाँ किसी विशेष संवैधानिक प्राधिकरण की नियुक्ति को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखा जाना है, तो यह सवाल उठता है कि क्या ऐसी व्याख्या उस सोच के अनुरूप होगी जो संबंधित संविधान सभा की बहसों के दौरान प्रचलित थी।

'अप्रतिबंधित और निरंकुश' विकल्प

  • संविधान के मसौदे में, CAG की नियुक्ति के लिए यह प्रावधान किया गया था कि 'एक महालेखा परीक्षक होगा जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
  • "महालेखापरीक्षक, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरह न्यायालय, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाना है और इसलिए यह आवश्यक है कि 'वारंट अंडर हिज हैंड एंड सील' शब्दों को शामिल किया जाए।"
  • संविधान सभा के अनुसार 'महालेखापरीक्षक को विधायिका या कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए। वह हमारे वित्त का प्रहरी है, उसकी स्थिति इतनी मजबूत होनी चाहिए कि वह किसी से प्रभावित न हो सके, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो। 
  • राष्ट्रपति द्वारा की जाने वाली नियुक्तियों के लिए (अनुच्छेद 75, 76, 280 (2), 316 और 324 (2)), संविधान उन लोगों द्वारा पूरी की जाने वाली कुछ शर्तों का प्रावधान करता है जिन पर ऐसी नियुक्तियों के लिए विचार किया जा सकता है। 
  • इन अनुच्छेदों में प्रयुक्त शब्द हैं - 'राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाना', और इस प्रकार राष्ट्रपति को यह सुनिश्चित करने के बाद कि आवश्यक योग्यताएं पूरी हो चुकी हैं, प्रधानमंत्री की सलाह पर कार्य करना चाहिए।

एक विशेष दर्जा

  • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तथा  भारत के CAG जैसे संवैधानिक अधिकारियों को राजनीतिक या कार्यकारी दबाव से मुक्त रखा जाना है। जबकि न्यायाधीशों और EC की नियुक्ति को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त कर दिया गया है, संविधान निर्माताओं की मंशा को ध्यान में रखते हुए भारत के CAG की नियुक्ति के लिए एक सुपरिभाषित मानदंड और प्रक्रिया स्थापित करने की आवश्यकता बनी हुई है। 
  • भारत के CAG के रूप में नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति के चयन की प्रक्रिया लोक सभा के अध्यक्ष, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोक लेखा समिति के अध्यक्ष की एक समिति नियुक्त करके शुरू होनी चाहिए, ताकि उन नामों पर विचार किया जा सके जिन्हें शॉर्टलिस्ट किया गया है।