Aug. 2, 2021

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

इतिहास का संक्षिप्त परिचय

इतिहास अतीत में किए गए मानव प्रयास की क्रमबद्ध कहानी है। वर्तमान के प्रकाश में अतीत का अध्ययन हीइतिहासकहलाता है। इसके अंतर्गत विगत घटनाओं का चिंतन किया जाता है जिससे हमारी और हमारे समाज की दिशा व दशा का निर्धारण कर भविष्य को सुरक्षित करने का प्रयास किया जाता है।

वर्तमान मानव का स्वरूप क्रमिक विकास का ही परिणाम है। इतिहासकारों ने इसके अध्ययन को सरल बनाने हेतु इसे कई भागों में वर्गीकृत किया है। जिस काल का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है, उसे प्रागैतिहासिक काल कहते हैं। जैसे- पाषाण काल। जिस काल में लिपि के साक्ष्य तो मिलते हैं, किंतु लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका उसे आद्य ऐतिहासिक काल कहते हैं। जैसे- सैंधव सभ्यता। जब से लिखित विवरण प्राप्त होते हैं उसे ऐतिहासिक काल कहा गया। जैसे- छठी सदी ईसा पूर्व का या महाजनपद काल।

इन सभी कालक्रमों का अध्ययन हम ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर करते हैं। इन्हें दो वर्गों में बाँटा गया है- पुरातात्विक साक्ष्य एवं साहित्यकि साक्ष्य।

पुरातात्विक साक्ष्य

प्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेषों को छोड़ा है जिन्हें पुरातात्विक साक्ष्य कहते हैं। इनके अंतर्गत अभिलेख, स्मारक एवं भवन, सिक्के, मूर्तियाँ, चित्रकला एवं मुहरों को शामिल किया जाता है।

अभिलेख

  • प्राचीन भारत में अधिकांश अभिलेख पाषाण शिलाओं, स्तंभों, ताम्रपत्रों दीवारों एवं प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण किए गए हैं।
  • इनका अध्ययन पुरालेखशास्त्र या एपिग्रेफी कहलाता है तथा इनकी एवं अन्य पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र या पेलिओग्रेफी कहते हैं।
  • सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
  • सबसे प्राचीन अभिलेखों में मध्य एशिया के बोगजकोई से प्राप्त अभिलेख है। इस पर वैदिक देवता-मित्र, वरुण, इंद्र और नासत्य के नाम मिलते हैं। इनसे ऋग्वेद की तिथि जानने में मदद् मिलती है।
  • सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा चुके हैं,- वे हैं- तीसरी सदी ईसा पूर्व के अशोक के अभिलेख।
  • अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। जो बाएँ से दाएँ से लिखी जाती थी। इसके अलावा, कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी। साथ ही पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अभिलेखों में यूनानी एवं अरमाइक लिपियों का भी प्रयोग हुआ है।
  • सर्वप्रथम 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि में लिखित अशोक के अभिलेख को पढ़ा था।
  • मास्की, गुर्जरा, नेट्टूर एवं उदेगोलम से प्राप्त अभिलेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है, जबकि अन्य अभिलेखों में उसे ‘देवानांपियदसि’अर्थात् ‘देवों का प्यारा’कहा गया है।
  • अभिलेखों को अलग-अलग वर्गों में बाँटा जा सकता है। राजकीय अभिलेखों में अधिकारियों एवं जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक राज्यादेशों एवं निर्णयों की सूचनाएँ मिलती है।
  • अनुष्ठानिक अभिलेखों को बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि संप्रदायों के अनुयायियों ने उत्कीर्ण करवाया।
  • आगे प्रशस्तियों का प्रचलन हो गया जिनमें राजाओं की विजयों की प्रशंसा की जाती थी।
  • इन सभी के अलावा, दान-पत्र एवं भूमिदान अभिलेखों को भी शामिल किया जाता है जिनसे प्राचीन भारत की भू-व्यवस्था, प्रशासन आदि की सूचना मिलती है। ये अभिलेख अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं।
  • गैर-सरकारी अभिलेखों में यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर से प्राप्त गरुड़ स्तंभ लेख उल्लेखनीय है। जिससे भागवत धर्म के विकास की जानकारी मिलती है।

स्मारक और भवन

  • स्मारक और भवनों से संबंधित काल की आध्यात्मिकता एवं धर्मनिष्ठा की जानकारी मिलती है। जैसे-हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से सिंधु सभ्यता के विषय में पता चलता है। अतरंजीखेड़ा से प्राप्त लोहे के साक्ष्य   ईसा पूर्व में लोहे के प्रचलन के विषय में बताते हैं। महल एवं मंदिर तत्कालीन सांस्कृतिक पहलुओं की जानकारी प्रदान करते हैं।

सिक्के

  • अभिलेख, स्मारक और भवन के अतिरिक्त प्राचीन राजाओं द्वारा जारी किए गए सिक्कों से तत्कालीन राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की जानकारी प्राप्त की जाती है।

 

  • सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र या न्यूमिसमेटिक्स कहते हैं।
  • पुराने सिक्के ताँबे, चाँदी, सोने और सीसे के बनते थे।
  • प्राचीनतम सिक्कों को आहत सिक्के या पंचमार्क सिक्के कहा जाता है क्योंकि इन्हें ठप्पा मारकर बनाया जाता था। इन पर पेड़, मछली, सांड़, हाथी, अर्द्धचंद्र आदि के चिन्ह बने होते थे।
  • आरंभिक सिक्कों पर कुछ प्रतीक मिलते हैं, परंतु बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियाँ भी उल्लिखित मिलती हैं। इन सिक्कों के उपलब्धि स्थान से राजनीतिक विस्तार एवं तिथिक्रम की जानकारी मिलती है।
  • सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर काल में बने, जो विशेषतः सीसे, पोटिन, ताँबे, काँसे, चाँदी और सोने के हैं।
  • सातवाहनों ने सीसे तथा गुप्त शासकों ने सोने के सर्वाधिक सिक्के जारी किए। इन सबसे पता चलता है कि व्यापार-वाणिज्य विशेषतः मौर्योत्तर काल एवं गुप्तकाल के बीच अधिक विकसित अवस्था में रहा।
  • सिक्कों पर लेख लिखने का कार्य सबसे पहले यवन शासकों ने प्रारंभ किया।
  • सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र, धार्मिक प्रतीक और लेख भी अंकित रहते हैं, जो तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश डालते हैं।

मूर्तियाँ

  • प्राचीन भारतीय इतिहास में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से आरंभ होता है।
  • इस काल में गांधार, मथुरा एवं अमरावती मूर्तिकला शैली का विकास हुआ।
  • गांधार मूर्तिकला शैली पर वैदेशिक प्रभाव है, जबकि मथुरा व अमरावती शैलियाँ स्वदेशी हैं।

चित्रकला

  • चित्रकला से तत्कालीन समाज के मनोभावों को समझने में मदद् मिलती है। जैसे- अजंता के गुफा चित्र प्राचीन कलात्मक उपलब्धियों की विरासत हैं। इनमें बोधिसत्व पद्मपाणि के चित्र, मरणासन्न राजकुमारी के चित्र से कलात्मक उन्नति का पूर्ण आभास होता है।

मुहरें

 

  • अवशेषों से प्राप्त मुहरों से भारत का इतिहास लिखने में बहुत सहायता मिलती है।
  • मुहरों से व्यापारिक, धार्मिक, आर्थिक जीवन के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

साहित्यिक साक्ष्य

  • साहित्यिक साक्ष्यों को हम धार्मिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य में वर्गीकृत करके अध्ययन करते हैं।

धार्मिक साहित्य:-

  • धार्मिक साहित्य के अंतर्गत ब्राह्मण एवं ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों की चर्चा की जाती है।
  • ब्राह्मण ग्रंथों में वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण आदि आते हैं। जबकि ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों में बौद्ध एवं जैन ग्रंथों को शामिल किया जाता है।
  • यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर प्रकाश डालता है।
  • ऋग्वैदिक काल को 1500 से 1000 ई. पू. के मध्य का माना जता है। तथा 1000 से 500 ई. पू. के बीच यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मणों, आरण्यकों एवं उपनिषदों का विकास हुआ।
  • ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ हैं, परन्तु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकाण्ड, जादू-टोना और पौराणिक आख्यान भी हैं। उपनिषदों में हमें दार्शनिक चिंतन मिलते हैं।
  • वेदों को अच्छी तरह समझने के लिए 6 वेदांगों की रचना की गई, जो इस प्रकार हैं-शिक्षा (उच्चारण विधि), कल्प (कर्मकांड), व्याकरण, निरुक्त (भाषा विज्ञान), छंद और ज्योतिष।
  • महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप में संकलन 400 ई. के आस-पास हुआ प्रतीत होता है।
  • पुराणों की संख्या 18 है जो प्राचीन काल से लेकर गुप्तकाल तक की ऐतिहासिक घटनाओं के विषय में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। इनके रचनाकार लोमहर्ष एवं उनके पुत्र उग्रश्रवा हैं। मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक है।
  • जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं घटनाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे। इनसे गौतम बुद्ध के जीवन के साथ-साथ मगध, उत्तरी बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई शासकों की जानकारी मिलती है।
  • जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। इनके आधार पर हमें महावीर कालीन बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है।

लौकिक साहित्य:-

  • लौकिक साहित्य के अंतर्गत ऐतिहासिक ग्रंथों, जीवनियों, धर्मसूत्र, स्मृतियों एवं टीकाओं को शामिल किया जाता है।
  • ऐतिहासिक ग्रंथों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें प्राचीन भारतीय राजतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
  • कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं का क्रमबद्ध इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है। जिसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई. के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं का क्रमानुसार वर्णन दिया गया है।
  • अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रंथों में पाणिनी की अष्टाध्यायी, वात्स्यायन की वर्तिका, पतंजलि का महाभाष्य, कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम्, मालविकाग्निमित्रम् आदि रचनाएँ शामिल की जाती हैं।
  • जीवनियों में अश्वघोष द्वारा रचित बुद्धचरित, बाणभट्ट की हर्षचरित, विल्हण की विक्रमांकदेवचरित आदि शामिल की जाती हैं।
  • दक्षिण भारत के इतिहास की जानकारी संगम साहित्य से प्राप्त की जा सकती है। जिसमें तोल्काप्पियम, तिरूक्कुरल, अहनानुरू, पुरनानुरू, शिलप्पादिकारम, मणिमेखलै आदि शामिल हैं।

विदेशी विवरण

विदेशी साहित्य या विदेशी विवरणों को भारतीय साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है। पर्यटक बनकर या भारतीय धर्म को अपनाकर अनेक यूनानी, रोमन और चीनी यात्री भारत आए और अपनी आँखों देखे भारत के विवरण को लिखकर छोड़ा।

यूनान एवं रोम के लेखक

  • यूनान के प्राचीन लेखकों में टेसियस तथा हेरोडोटस के नाम प्रसिद्ध हैं। टेसियस ईरान का राजवैद्य था। इसके वर्णन अधिकांश कल्पित कहानियाँ हैं।
  • हेरोडोटस को ‘इतिहास का पिता’कहा जाता है। इसके द्वारा 5 वीं सदी ई. पू. में लिखी गई ‘हिस्टोरिका’में भारत और फारस के संबंधों का वर्णन मिलता है।
  • 326 ई. पू. में सिकंदर के साथ आने वाले यूनानी लेखक नियार्कस, ऑनेसिक्रिटस और एरिस्टोबुलस थे।
  • सिकंदर के बाद के लेखकों में तीन राजदूतों मेगस्थनीज, डाइमेकस एवं डायोनीसियस के नाम उल्लेखनीय हैं।
  • मेगस्थनीज की इंडिका में मौर्यकाल की समाज एवं संस्कृति का वर्णन मिलता है।
  • डाइमेकस सीरिया के शासक एंटियोकस का राजदूत था जो बिंदुसार के दरबार में आया था।
  • डायोनीसियस मिस्त्र के शासक टॉलेमी फिलाडेल्फस का राजदूत था जो बिंदुसार के राजदरबार में आया था।
  • पैरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी और टॉल्मी की ‘ज्योग्राफी’ नामक पुस्तकों में भी प्राचीन भूगोल एवं वाणिज्य के अध्ययन के लिए प्रचुर महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
  • प्लिनी की ‘नेचुरल हिस्टोरिका’ ईसा की पहली सदी की है जो भारत और इटली के बीच होने वाले व्यापार की जानकारी देती है।

चीनी विवरण

  • चीनी यात्री बौद्ध मतानुयायी थे तथा भारत में बौद्ध तीर्थों का दर्शन करने एवं बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिए भारत आए थे। इनमें प्रमुख थे-
  • फ़ाह्यान ईसा की पाँचवी सदी के प्रारंभ में आया था। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भारत आया था। इसने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डाला है।
  • ह्वेनसांग 7वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हर्षवर्द्धन के समय भारत आया था। इसने हर्षकालीन भारत के बारे में अपनी रचना ‘सी-यू-की’ में लिखा।
  • 7वीं सदी के अंत में इत्सिंग भारत आया। इसने अपने विवरण में नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा तत्कालीन भारत का वर्णन किया है।