Aug. 5, 2021

पूर्व ऐतिहासिक काल

भू-वैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी लगभग 4-8 अरब वर्ष प्राचीन है एवं इस पर जीवन का प्रारंभ लगभग 3-5 अरब वर्ष पूर्व हुआ। पृथ्वी की भू-वैज्ञानिक समय सारणी को महाकल्पों (Ersa) में विभाजित किया जाता है तथा प्रत्येक महाकल्प को अनेक कल्पों (Periods)  में एवं कल्पों को अनेक युगों (Epochs) में विभाजित किया जाता है।

  • मानव, भू-वैज्ञानिक इतिहास के अंतिम महाकल्प नूतनजीव या Cenozoic महाकल्प के चतुर्थ चरण में रह रहा है। इसे क्वार्टनरी (Quatenary) कहा जाता है। इसके तहत तीन युग हैं-
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  • अत्यंत नूतन युग या Pleistocene युग में तीन बड़े-बड़े स्तनधारी परिवार का आविर्भाव हुआ। ये आधुनिक घोड़े, हाथी तथा मवेशियों के पूर्वज थे। इन पशु प्रारूपों को सामूहिक रूप से ‘विलाफ्रांसीसी जंतु’समूह कहा जाता है।
  • लगभग 2 करोड़ वर्ष पूर्व महाकपि का एक समूह, जो ‘रामापिथेकस’ के नाम से जाना जाता था, वह दो समूहों में विभाजित हो गया।
  • इसकी एक शाखा जंगलों में रह गई, परन्तु दूसरी शाखा ने खुले घास के मैदान में रहना पसंद किया। इसे ‘ऑस्ट्रेलोपिथेकस’ के नाम से जाना जाने लगा। यह मानव का आदि पूर्वज था।
  • आगे चलकर इससे ‘इरेक्टस’ - नियान्डरथेल - क्रोमैगनन एवं अंत में 30 हजार वर्ष पूर्व आधुनिक मानव (होमोसेपियन) का विकास हुआ।

भारत में आदि मानव के जीवाश्म प्राप्त नहीं होते हैं।

  • भारत में मानव के प्राचीनतम अस्तित्व के संकेत पत्थर के औजारों से मिलते है जिनका काल निर्धारण लगभग 5 लाख ईसा पूर्व से 2-5 लाख ईसा पूर्व किया गया है।
  • किंतु हाल में ‘बोरी’ नामक स्थान पर मानव की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पूर्व निर्धारित की गई है।
  • अध्ययन की सुलभता के इतिहास को विभिन्न कालों में बाँटा गया है-
    • पूर्व ऐतिहासिक काल या प्रागैतिहासिक काल को तीन मुख्य चरणों में बाँटा गया है-

पुरा पाषाण काल 

  • भारत की पुरापाषाण युगीन सभ्यता का विकास प्लीस्टोसीन या हिम युग से हुआ।
  • भारतीय पुरापाषाण काल को मानव द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पत्थर के औजारों के स्वरूप तथा जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर तीन अवस्थाओं में बाँटा जाता है-

निम्न पुरा पाषाण काल

  • इस काल का अधिकांश भाग प्लाइस्टोसीन या हिमयुग से गुजरा है। इस काल के महत्वपूर्ण उपकरण कुल्हाड़ी या हस्त कुठार (Hand Axe), विदारिणी (Cleaver) एवं खंडक (Chapper) थे।
  • 1863 में रॉबर्ट ब्रसफुट ने मद्रास के समीप ‘पल्लवरम’नामक स्थल से पहला हैंड एक्स या हाथ की कुल्हाड़ी प्राप्त की। उसी समय अतिरमपक्कम् से भी ऐसी ही कुल्हाड़ी प्राप्त हुई।
  • इस युग में क्रोड उपकरणों की प्रधानता थी।
  • निम्न पुरापाषाण स्थल भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सभी क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। इनमें असम की घाटी भी शामिल है।
  • एक महत्वपूर्ण निम्न पुरापाषाण स्थल सोहन की घाटी में मिलता है। यह ‘सोहन संस्कृति’ के नाम से जाना जाता है। सोहन, सिंधु की छोटी सहायक नदी है।
  • सोहन घाटी के उपकरणों को आरंभिक सोहन, उत्तरकालीन सोहन, चौन्तरा तथा विकसित सोहन नाम दिया गया है।
  • उत्तरकालीन सोहन के अंतर्गत चौन्तरा से प्राप्त उपकरणों में प्राक् सोहन के कुछ फलक, सोहन परम्परा के पेबुल तथा एवं मद्रास परंपरा के हैन्ड एक्स आदि मिलते हैं। ऐसा लगता है कि चौन्तरा उत्तर तथा दक्षिण परंपरा का मिलन स्थल था।
  • इसके अलावा, नर्मदा घाटी के पास ही नरसिंहपुर, भीमबेटका, महाराष्ट्र में नेवासा, राजस्थान में डीडवाना, गुजरात में साबरमती एवं माही घाटियाँ, उत्तर प्रदेश में बेलनघाटी, झारखण्ड में सिंहभूम तथा आन्ध्र प्रदेश के नेल्लोर व गिदलुर महत्वपूर्ण निम्न पुरापाषाण स्थल हैं।
  • गंगा, यमुना एवं सिंधु के कछारी मैदानी में निम्नपुरापाषाण कालिक स्थल नहीं मिले हैं।
  • इस काल के लोगों ने क्वार्टजाइट पत्थरों का प्रयोग किया था। ये लोग शिकारी एवं खाद्य संग्राहक थे।

मध्य पुरापाषाणकाल 

  • मध्य पुरापाषाण काल की महत्वपूर्ण विशेषता थी प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल में परिवर्तन।
  • इस काल में क्वार्टजाइट के साथ-साथ जेस्पर एवं चर्ट भी प्रमुख कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाने लगा।
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  • मध्य पुरापाषाण काल के स्थल प्रायः सम्पूर्ण देश से संबद्ध हैं। जैसे- महाराष्ट्र में नेवासा, झारखण्ड में सिंहभूम, उत्तर प्रदेश में चकिया, सिंगरौली बेसिन एवं बेलन घाटी, मध्य प्रदेश में भीमबेटका एवं सोन घाटी, गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र आदि।
  • हालांकि उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में उतने स्थल प्राप्त नहीं होते हैं जितने प्रायद्वीपीय क्षेत्र में प्राप्त हुए हैं। इसका मुख्य कारण पंजाब में उपयुक्त कच्चे माल का अभाव माना जाता है।
  • इस काल में कोर, फ्लेक तथा ब्लेड उपकरण प्राप्त हुए हैं। फलकों की अधिकता के कारण मध्य पुरापाषाण काल को ‘फलक संस्कृति’ की संज्ञा दी गई है।

उच्च पुरापाषाणकाल 

  • उच्च पुरापाषाण कालीन अवस्था का विस्तार हिमयुग के उस अंतिम चरण के साथ रहा, जब जलवायु अपेक्षाकृत गर्म हो गई एवं नमी कम हो गई।
  • इस काल में उपकरण बनाने की मुख्य सामग्री लंबे स्थूल फ़लक होते थे।
  • इस काल के उपकरणों में तक्षणी एवं खुरचनी उपकरणों की प्रधानता बढ़ गई।
  • इस काल में हड्डी के उपकरणों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो गई।

 

 

 

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  • इस काल के महत्वपूर्ण स्थल सोन घाटी (मध्य प्रदेश), सिंहभूम (झारखण्ड), मध्य प्रदेश के जोगदहा, भीमबेटका, रामपुर, बघेलान, बाघोर, महाराष्ट्र के पटणे, भदणे तथा इनामगाँव, आन्ध्र प्रदेश के रेनीगुंटा, वेमुला, कुर्नूल गुफाएँ, कर्नाटक का शोरापुर दोआब तथा राजस्थान का बूढ़ा पुष्कर आदि हैं।टी (मध्य प्रदेश), सिंहभूम (झारखण्ड), मध्य प्रदेश के जोगदहा, भीमबेटका, रामपुर, बघेलान, बाघोर, महाराष्ट्र के पटणे, भदणे तथा इनामगाँव, आन्ध्र प्रदेश के रेनीगुंटा, वेमुला, कुर्नूल गुफाएँ, कर्नाटक का शोरापुर दोआब तथा राजस्थान का बूढ़ा पुष्कर आदि हैं।
  • इस काल में नक्काशी और चित्रकारी दोनों रूपों में कला का विकास हुआ। बेलन घाटी स्थित लोहदानाला से प्राप्त अस्थि निर्मित मातृदेवी की मूर्ति इसी काल की है। विंध्य क्षेत्र में स्थित भीमबेटका में विभिन्न कालों की चित्रकारी देखने को मिलती है।
  • सभ्यता के इस आदिम युग में मानव अग्नि, कृषि कार्य एवं पशुपालन से परिचित नहीं था एवं न ही बर्तनों का निर्माण करना जानता था।
  • इस काल का मानव खाद्य पदार्थों का उपभोक्ता ही था, उत्पादक नहीं।
  • दो कारणों से इस काल का विशेष महत्व है। पहला- इस काल में होमोसेपियन का विकास तथा दूसरा - इस काल में उपयोग में लाए जाने वाले उपकरण चकमक के बने थे जोकि एक प्रकार का पत्थर था।

मध्य पाषाण काल 

  • मध्य पाषाण काल की जानकारी सर्वप्रथम 1867 में सी. एल. कार्लाइल द्वारा विंध्य क्षेत्र में लघु पाषाण उपकरण खोजने के साथ हुई।
  • दरअसल, मध्य पाषाण काल, पुरापाषाण काल एवं नव पाषाण काल के मध्य संक्रमण को रेखांकित करता है। इस काल में भी मनुष्य मुख्यतः खाद्य संग्राहक ही रहा, परंतु शिकार करने की तकनीक में परिवर्तन आ गया। अब वह बड़े जानवरों के साथ-साथ छोटे-छोटे जानवरों का भी शिकार करने लगा।
  • पशुपालन का प्रारंभिक साक्ष्य भी इसी काल में मिलता है। मध्य प्रदेश के आदमगढ़ एवं राजस्थान के बागौर में पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिलते हैं। सर्वप्रथम कुत्ते को पालतू पशु बनाया गया था।
  • प्रक्षेपास्त्र तकनीक के विकास का प्रयास इस काल का महत्वपूर्ण परिवर्तन था। इसी काल में सर्वप्रथम तीर-कमान का विकास हुआ।
  • इस काल के उपकरण अत्यंत छोटे होते थे। इसलिए इन्हें ‘माइक्रोलिथ’ कहा गया।
  • इस काल के प्रमुख स्थल हैं- पश्चिम बंगाल में वीरभानपुर, गुजरात में लंघनाज, तमिलनाडु में टेरी समूह, मध्य प्रदेश में आदमगढ़, राजस्थान में बागौर, गंगा घाटी में सराह नाहरराय एवं महदहा आदि।
  • सराह नाहरराय एवं महदहा से इस काल के मानव अस्थि पंजर का पहला अवशेष प्राप्त हुआ है।
  • मानवीय आक्रमण या युद्ध का प्रारंभिक साक्ष्य सराय नाहरराय से प्राप्त हुआ है।
  • बागौर से इस काल के पाषाण उपकरणों के साथ-साथ मानव कंकाल भी मिलते हैं।
  • लंघनाज से लघुपाषाण उपकरण के साथ-साथ पशुओं की हड्डियाँ, कब्रिस्तान तथा कुछ मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं।
  • अग्नि का उपयोग मध्य पाषाण को पुरापाषाण काल से अलग करता है। लंघनाज तथा सराह नाहरराय व महदहा से गर्त चूल्हे का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
  • शवाधान का तरीका इस काल की विशिष्ट पहचान है क्योंकि पुरापाषाण काल में इसका साक्ष्य प्राप्त नहीं होता।
  • लेखहिया से 17 नर कंकाल मिले हैं जिनमें से अधिकांश का सिर पश्चिम दिशा में है। महदहा के किसी न किसी समाधि में स्त्री-पुरुष के साथ-साथ दफनाये जाने का साक्ष्य मिलता है।
  • राजस्थान में स्थित सांभर झील निक्षेप के कई मध्यपाषाणिक स्थल प्राप्त हुए हैं। इनमें नरवा, गोविंदगढ़ तथा लैखवा प्रमुख हैं। यहाँ से विश्व के सबसे पुराने वृक्षारोपण के साक्ष्य मिले हैं।

नवपाषाण काल

  • नवपाषाण काल का आधारभूत तत्व है-खाद्य उत्पादन तथा पशुओं को पालतू बनाये जाने की जानकारी का विकास।
  • ‘नियोलिथिक’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सर जॉन लुबाक ने 1865 ई. में किया था।
  • नवपाषाणकाल की निम्नलिखित विशषताएँ हैं-
  • कृषि कार्य का प्रारंभ।
  • पशुपालन का विकास।
  • पत्थर के घर्षित एवं पॉलिशदार उपकरणों का निर्माण।
  • ग्राम समुदाय का प्रारंभ।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम नवपाषाणिक बस्ती मेहरगढ़, जोकि पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित है, से कृषि का प्रारंभिक साक्ष्य मिलता है। यह लगभग 7000 ई. पू. पुराना है।
  • इस काल के प्रमुख स्थल हैं- बेलन घाटी (उत्तर प्रदेश), रेनीगुंटा (आन्ध्र प्रदेश), सोन घाटी (मध्य प्रदेश), सिंहभूम (झारखण्ड), बुर्जहोम एवं गुफ्फकराल (कश्मीर) आदि।
  • बुर्जहोम एवं गुफ्फकराल से अनेक गर्तवास, मृदभांड एवं पत्थर व हड्डियों के औजार प्राप्त हुए हैं।
  • बेलन घाटी में कोल्डिहवा से वन्य एवं कृषि जन्य दोनों प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं। यह धान की खेती का प्राचीनतम साक्ष्य है। इनकी कालावधि 6000 ई. पू. से 5000 ई. पू. निर्धारित की गई है।
  • हाल ही में हुए शोध से उत्तर प्रदेश के लहुरादेव में सबसे पुराने चावल के साक्ष्य मिले हैं।
  • चोपानी-मांडो से मृदभाण्ड के प्रयोग के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं।
  • चोपानी-मांडो से 3 किमी. दूर स्थित महागरा से सबसे महत्वपूर्ण संरचना गोशाला के रूप में प्राप्त हुई है।
  • इसके अलावा, मध्य गंगा घाटी के अन्य नवपाषाण कालीन स्थल चिरांद, चैचर, सेनुआर, ताराडीह आदि हैं।
  • इसी तरह पूर्वी भारत में असम, मेघालय की गारो पहाड़ी तथा दक्षिण भारत में कर्नाटक के मास्की, ब्रह्मगिरी, हल्लूर, कोडक्कल, पिकलीहल, संगनकलन, टेक्कलकोट्टा तथा तमिलनाडु के पोचमपल्ली एवं तेलंगाना के उत्नूर आदि प्रमुख नवपाषाणिक स्थल हैं।
  • दक्षिण भारत में पहली फसल के रूप में ‘रागी’को उगाया गया था।