July 31, 2021

पाकिस्तान से सबक: दोस्तों को कैसे जीतें, सहयोगियों को कैसे प्रभावित करें, फिर सब कुछ गंवा दें

Indian Express

Paper – 2 (International Relations)

Writer – C. Raja Mohan (director, Institute of South Asian Studies)

1950 के दशक में, पाकिस्तान की संभावनाएं पूर्वी एशिया और मध्य पूर्व के कई देशों की तुलना में बहुत बेहतर लग रही थीं। लेकिन आर्थिक विकास की उपेक्षा करके, शानदार जुनूनों को सामान्य ज्ञान पर हावी होने तथा सामंती और पूर्व-आधुनिक विचारधाराओं को बढ़ावा देकर पाकिस्तान अपने साथियों से तेजी से पिछड़ गया। 

इस बात को व्यापक रूप से माना जाता है कि "रणनीतिक स्वायत्तता" भारतीय विदेश नीति की एक अनूठी विशेषता रही है। हालाँकि, सत्य यह है कि सभी देश, चाहे वे बड़े हों या छोटे, अपने आप को जिन बाधाओं में पाते हैं, उसमें दाव-पेंच के लिए अपने दायरे को अधिकतम करने की कोशिश करते रहते हैं। आइए हम इस आलेख में पाकिस्तान के मामले पर विचार करते हैं।

पाकिस्तान द्वारा अमेरिका के कम्युनिस्ट विरोधी गठबंधनों पर हस्ताक्षर किए जाने के बावजूद शीत युद्ध के दौरान, माओ के चीन के साथ एक विशेष संबंध बनाने में पाकिस्तान की कूटनीति शानदार थी। 1971 में वाशिंगटन और बीजिंग के बीच गुप्त कूटनीति को सुगम बनाकर, यह अमेरिका और चीन के बीच संबंध नहीं होने के बावजूद एक सेतु बनने में सफल हो गया था। जबकि भारत को 1970 के दशक में अमेरिका और चीन दोनों के साथ विवादों में देखा जा सकता है और इसी वजह से इसे क्षेत्र को पुनर्संतुलित करने के लिए सोवियत संघ की ओर रुख करना पड़ा था।

जैसे-जैसे चीन-अमेरिका टकराव का एक नया युग सामने आता है और चीन के साथ गहराते विवाद के बीच भारत का रुख अमेरिका की तरफ बढ़ता है, पाकिस्तान के पास बातचीत के लिए कुछ मुश्किल क्षेत्र ही रह जाते है। पाकिस्तान अपने "आयरन फ्रेंड" (iron brother) यानि सबसे करीबी दोस्त चीन को नहीं छोड़ सकता, क्योंकि यह उसका सबसे विश्वसनीय बाहरी भागीदार है। फिर भी, रावलपिंडी अमेरिका और चीन के बीच नए भूराजनीतिक उतार-चढ़ाव में वाशिंगटन से पूरी तरह से अलग नहीं होना चाहता।

जैसा कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को पूरी तरह से वापस लेने का निर्णय ले चुका है, तो अब पाकिस्तान वाशिंगटन के साथ संबंध बनाने के लिए उत्सुक दिख रहा है जो काबुल में अमेरिकी हिस्सेदारी से जुड़ा नहीं है। पिछले कुछ दिनों में पाकिस्तान और बाइडेन प्रशासन के बीच उच्च-स्तरीय संपर्कों की झड़ी ने द्विपक्षीय संबंधों को पुनःस्थापित करने के संदर्भ उत्साह पैदा कर दिया है।

पाकिस्तान अमेरिका और चीन के बीच नई गतिशीलता के साथ-साथ अफगानिस्तान में गहराते संकट का प्रबंधन कैसे करता है, इस पर दिल्ली की नज़र रहेगी।

लेकिन पहले स्वायत्तता और गठबंधनों पर बात कर लेते हैं। स्वायत्तता अपनी स्वतंत्रता के स्तर को बढ़ाने के लिए किया गया प्रयास है और गठबंधन अपनी सुरक्षा के लिए वास्तविक या कथित खतरों से निपटने के लिए किया गया प्रयास हैं। दोनों अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्वाभाविक हैं। एक राष्ट्र दो अनिवार्यताओं के बीच संतुलन कैसे पाता है यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। गठबंधन में शामिल होने का मतलब अपनी संप्रभुता को छोड़ना नहीं है। प्रत्येक गठबंधन में अपने आप को सीमित कर बदले में साथी से अधिक प्रतिबद्धताओं की आशा रखने से दोनों के बीच एक स्थायी तनाव कायम रहता है।

आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के लिए अलग-अलग विदेश नीति अपनाने के कई कारण थे। नेहरू के भारत का मानना ​​​​था कि उसे कोई बाहरी खतरा नहीं है, साथ ही उसके पास अपने दम पर दुनिया को नेविगेट करने की अपनी क्षमता है। भारत के संबंध में, पाकिस्तान की असुरक्षा का मतलब था गठबंधन के लिए उत्सुक। फिर जब एंग्लो-अमेरिकियों को वैश्विक साम्यवाद के खिलाफ धर्मयुद्ध में भागीदारों की तलाश थी तो पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ एक द्विपक्षीय सुरक्षा संधि पर हस्ताक्षर किए तथा 1950 के दशक के मध्य में दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (SEATO) और केंद्रीय संधि संगठन (CENTO) में शामिल हो गए।

हालांकि SEATO और CENTO लंबे समय तक नहीं टिक सकें, लेकिन उन्होंने पश्चिम में पाकिस्तानी सेना के लिए बहुत सद्भावना पैदा कर दी। पाकिस्तान भले ही पश्चिम की तरह एक ही रास्ते पर रहा हो, लेकिन उसका सपना एशिया में साम्यवाद से लड़ने का नहीं बल्कि भारत को संतुलित करने का था। कम्युनिस्ट चीन ने इसे जल्दी से समझ लिया। 1950 के दशक में  पश्चिम द्वारा बीजिंग के प्रति अत्यधिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बावजूद, पाकिस्तान को लक्षित करने के बजाय, चीनी प्रधान मंत्री झोउ एनलाई ने भारत से पाकिस्तान की असुरक्षाओं का फायदा उठाने के बारे में सोचा।

1955 में एफ्रो-एशियाई एकजुटता पर बांडुंग सम्मेलन में, झोउ ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा को मंत्रमुग्ध कर दिया। पाकिस्तान, जिसने सम्मेलन की शुरुआत में साम्यवादी चीन की निंदा की थी, सम्मलेन के अंत तक बीजिंग के प्रति कहीं अधिक झुका हुआ प्रतीत हो रहा था।

जहाँ एक तरफ अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंध ऊपर-नीचे होते रहे है, वहीँ दूसरी तरफ चीन के साथ उसके संबंधों में लगातार विस्तार देखा गया है। पाकिस्तान के पास अमेरिका से इतना अधिक निराश होने के कई कारण थे जिसमें से सबसे प्रमुख 1971 में दोनों देशों के बीच सुरक्षा साझेदारी के बावजूद भारत को बांग्लादेश को मुक्त करने से नहीं रोक पाना था।

लेकिन 1979 के अंत में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजने के बाद, पाकिस्तान को अमेरिका से अपनी नाराज़गी को दूर करने के लिए मजबूर होना पड़ा। पाकिस्तानी सेना ने रूस के कब्जे के खिलाफ जिहाद को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका के साथ काम किया था, इसलिए इसने परमाणु अप्रसार पर अमेरिकी कानूनों से अपने गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम (चीनी सहायता से निर्मित) की रक्षा के लिए वाशिंगटन के साथ नवीनीकृत साझेदारी का इस्तेमाल किया।

2001 में अमेरिका और पाकिस्तान फिर से नज़दीक आ गए क्योंकि 9/11 को न्यूयॉर्क और वाशिंगटन पर हुए हमलों के बाद अफगानिस्तान में अपनी पहुँच बनाए रखने के लिए वाशिंगटन को भौतिक पहुंच और खुफिया समर्थन की जरुरत थी। यहां तक ​​​​कि जब उसने अफगानिस्तान में अमेरिका को समर्थन की पेशकश की, तब भी वह तालिबान, जो अफगानिस्तान को स्थिर करने के अमेरिकी प्रयासों के खिलाफ था, के साथ संबंध बरक़रार रखने में कामयाब रहा। अब अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तान तालिबान को अफगानिस्तान में एक नई राजनीतिक व्यवस्था में शांतिपूर्ण परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए राजी करे। दूसरे शब्दों में, पिछले दो दशकों में पाकिस्तान को दी गई अरबों डॉलर की सहायता के बदले अमेरिका रावलपिंडी से इसकी अपेक्षा रखता है।

हालांकि, पाकिस्तानी सेना को चिंता है कि अमेरिका के अफगानिस्तान और हिंद-प्रशांत की ओर से वापस होने के बाद वाशिंगटन में उसका वर्चस्व कम हो जाएगा। पाकिस्तान अमेरिका और चीन के बीच इंडो-पैसिफिक विवाद में नहीं पड़ना चाहता। साथ ही वह अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति में भारत के बढ़ते महत्व को भी कम करना चाहेगा।

दिल्ली को बदलती वैश्विक धाराओं के साथ तालमेल बिठाने में पाकिस्तान की एजेंसी को कम नहीं आंकना चाहिए। एक क्लाइंट स्टेट (client state-एक ऐसा देश जिसे दूसरे बड़े और अधिक शक्तिशाली देश से समर्थन और सुरक्षा मिलती है) के रूप में भारत में अपनी छवि के विपरीत, पाकिस्तान अपने महान शक्ति गठबंधनों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने में बेहतर सिद्ध हुआ है। लेकिन इसके साथ तीन बड़ी समस्याएं हैं जो अब पाकिस्तान की सामरिक स्वायत्तता को जटिल बना रही हैं।

पहला है इसकी सापेक्षिक आर्थिक गिरावट।2021 में पाकिस्तान की अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद लगभग 300 बिलियन डॉलर है, जो भारत की तुलना में 10 गुना कम है। पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति जीडीपी करीब 1,260 डॉलर है, जो बांग्लादेश के आधे से थोड़ा ही ज्यादा है। दूसरा है, कश्मीर को भारत से अलग करने और अफगानिस्तान पर अपने राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करने के लिए पाकिस्तान का चिरस्थायी जुनून और ये दोनों कारक पाकिस्तानी सेना द्वारा बड़े पैमाने पर राजनीतिक निवेश के बावजूद असफल दिखते हैं।

अप्रत्याशित रूप से, रावलपिंडी में एक मान्यता है कि पाकिस्तान को भू-राजनीति से लेकर भू-अर्थशास्त्र तक और पड़ोसियों के साथ स्थायी युद्ध से लेकर किसी प्रकार की शांति तक पुनर्रचना की आवश्यकता है। मार्च में पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा का यही संदेश था। लेकिन समस्या यह है कि इसे नीति में तब्दील करना कठिन साबित हो रहा है।

इस बीच, एक तीसरा और कम चर्चित तत्व पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय राजनीति को जटिल बनाता है। इस्लाम को एक राजनीतिक हथियार में बदलना और धार्मिक उग्रवाद को सशक्त बनाना कुछ दशक पहले बहुत ही अक़्लमंद रणनीति लग रही थी, लेकिन आज उन ताकतों ने अपना वजूद हासिल कर लिया है और आंतरिक सामंजस्य बनाने तथा अंतरराष्ट्रीय विकल्पों को व्यापक बनाने के लिए पाकिस्तान की क्षमता को गंभीर रूप से बाधित कर दिया है।

1950 के दशक में, पाकिस्तान की संभावनाएं पूर्वी एशिया और मध्य पूर्व के कई देशों की तुलना में बहुत बेहतर लग रही थीं। आर्थिक विकास की उपेक्षा करना, अपने सनक को सही समझ पर हावी होने देना और सामंती और पूर्व-आधुनिक विचारधाराओं को बढ़ावा देकर, पाकिस्तान अपने साथियों से तेजी से पीछे होता चला गया है।

पाकिस्तान के सकारात्मक पुनर्निर्माण को खारिज करना नासमझी होगी; इसमें भारत से बड़ी हिस्सेदारी किसी देश की नहीं है। हालांकि, अभी के लिए, पाकिस्तान एक राष्ट्र के रणनीतिक लाभों को बर्बाद करने के खतरों पर सतर्क दिख रहा है - जिसमें एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक स्थान शामिल है जो उसे विरासत में मिला था और शक्तिशाली भागीदारी जो उसके रास्ते में आई थी।