Aug. 24, 2021

काबुल के मुद्दे पर, दिल्ली को करना होगा इंतजार

Indian Express, 24-08-21

Paper – 2 (International Relations)

Writer – C. Raja Mohan (Institute of South Asian Studies, National University of Singapore)

सामरिक धैर्य के साथ अफगान लोगों के लिए राजनीतिक सहानुभूति और एक सक्रिय जुड़ाव दिल्ली को काबुल के आंतरिक और बाहरी विकास में प्रासंगिक बनाए रखेगा।

जैसा कि काबुल में हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अराजकता जारी है, दो परस्पर राजनीतिक वार्ताओं से अफगानिस्तान के तत्काल भविष्य को निर्धारित करने की संभावना बन रही है। इसमें से पहला अफगानिस्तान के भीतर एक नई राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण पर केंद्रित है और दूसरा तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के बारे में है।

काबुल में अमेरिका समर्थित व्यवस्था को "उखाड़" फेखने और अफगानिस्तान से भारत को "बहार करने" का जो उत्साह पाकिस्तान में दिख रहा है उसके बावजूद, दिल्ली पीछे हटने और यह संकेत देने का जोखिम उठा सकती है कि वह अभी इंतजार करेगा। कुछ ये मान रहे है कि रावलपिंडी तालिबान के प्रभुत्व वाली एक नई राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने से अब कुछ ही दूरी पर स्थित है। फिर भी अफगानिस्तान में पाकिस्तान समर्थित व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल करने और उसके भविष्य को बनाए रखने में कई चुनौतियों का सामना पड़ेगा।

पाकिस्तान का अपना अनुभव नुकसान की ओर इशारा करता है। गौर कीजिए कि पिछली बार रावलपिंडी ने अफगानिस्तान में अपनी जीत का जश्न कब मनाया था। 1989 में सोवियत सैनिकों के अफगानिस्तान से हटने के बाद, नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाली और मास्को द्वारा समर्थित काबुल सरकार ने ढहने से पहले तीन साल तक मुजाहिदीन और पाकिस्तान द्वारा पूर्ण पैमाने पर हमले का विरोध किया था।

लेकिन तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान पर उचित नियंत्रण हासिल करने से पहले पाकिस्तान को एक और आधा दशक लग गया। लेकिन इससे पहले कि पाकिस्तान और तालिबान अपनी जीत को दीर्घकालिक भू-राजनीतिक लाभ में तब्दील कर पाते, दुनिया 9/11 के आतंकी हमलों के बाद अफगानिस्तान पर एक टन ईंटों की तरह गिर गई। तालिबान सरकार 2001 के अंत तक खत्म हो गई, ठीक उसी प्रकार जैसा अशरफ गनी की सरकार इस महीने खत्म हो गई।

पिछले दो दशकों में तालिबान के धैर्यपूर्ण समर्थन और उसे काबुल में वापस लाने के लिए पाकिस्तानी सेना निश्चित रूप से अपनी पीठ थपथपा सकती है। लेकिन अफगानिस्तान में दो अधूरे कामों- एक विश्वसनीय सरकार का निर्माण और उसके लिए अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल करना, पर इसकी स्थिति कैसी रहती है वो देखना दिलचस्प रहेगा।

राष्ट्रपति गनी के काबुल से भाग जाने के एक सप्ताह से अधिक समय के बाद, अब कोई भी सरकार नहीं है। इससे पहले कि रावलपिंडी तालिबान को अन्य समूहों के साथ सत्ता साझा करने के लिए प्रेरित कर सके, उसे तालिबान के विभिन्न गुटों के बीच एक स्वीकार्य स्थान की सुविधा प्रदान करनी होगी।

किसी भी विजयी गठबंधन के लिए सत्ता का बंटवारा और युद्ध से हुई लाभ का बंटवारा हमेशा मुश्किल होता है। यह खंडित पश्तून जनजातियों के बीच कठिन होने की संभावना है।

इसके बाद नई सरकार में गैर-तालिबान संगठनों को शामिल करने की समस्या है। तालिबान की ओर से इस दिशा में कुछ प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन वे निष्फल रहे। इस बीच, तालिबान को अभी भी व्यापक आबादी को अपने अच्छे इरादों के बारे में समझाना बाकी है। हजारों अफगान तालिबान के भविष्य से बचने के लिए बेताब हैं। कुछ विरोधी सैन्य प्रतिरोध को संगठित करने के लिए फिर से संगठित हो रहे हैं।

"समावेशी सरकार" पर बात करना आसान है; लेकिन वहाँ पहुँचने में बहुत समय लगेगा। लेकिन तालिबान और पाकिस्तान के लिए बहुत कम समय है - वे जल्दी मान्यता और वैधता के लिए उत्सुक हैं। यह हमें अफगानिस्तान में मौजूदा संकट के अंतरराष्ट्रीय आयाम में लाता है।

तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार की मान्यता के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कुछ व्यापक शर्तें तय की हैं। देश में एक समावेशी सरकार के अलावा, दुनिया मानवाधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं के अधिकारों, अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के समर्थन को समाप्त करने और अफीम उत्पादन को रोकने पर सबसे अधिक जोर दे रही है। तालिबान नेताओं ने इन मुद्दों पर सभी सही बातें कही हैं, लेकिन उनके वादों और धरातल पर प्रदर्शन के बीच का अंतर वास्तविक है।

जहाँ एक तरफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस स्तर पर तालिबान पर अपनी मांगों में एकजुट दिखाई देता है, वहीँ दूसरी तरफ पाकिस्तान को अपने कुछ पारंपरिक दोस्तों जैसे चीन और तुर्की या रूस जैसे नए सहयोगियों से मौजूदा अंतरराष्ट्रीय सहमति से अलग हटकर उसकी सहायता करने की उम्मीद होगी।

हालाँकि, पाकिस्तान और तालिबान जानते हैं कि चीनी और रूसी समर्थन स्वागत योग्य है लेकिन पर्याप्त नहीं है। राजनीतिक वैधता हासिल करने के साथ-साथ सतत अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता के लिए उन्हें अमेरिका और उसके सहयोगियों के समर्थन की आवश्यकता है। अमेरिका ने अफगानिस्तान की लगभग 10 अरब डॉलर की वित्तीय संपत्ति को पहले ही फ्रीज कर दिया है और कुछ पश्चिमी बैंक अफगानिस्तान में प्रेषण को रोक रहे हैं। ये दबाव अफगानिस्तान में मौजूदा गंभीर आर्थिक स्थिति को और अधिक असहनीय बना देते हैं।

पश्चिम को भी तालिबान की जरूरत है ताकि वह काबुल से अपने नागरिकों को निकाल सके और जल्द से जल्द मानवीय सहायता प्रदान कर सके और इसकी मांग पश्चिम में तेजी से बढ़ भी रही है। दूसरे शब्दों में, काबुल और दुनिया के बीच जुड़ाव के लिए बहुत जगह होगी और इन सब में पाकिस्तान खुद को महत्वपूर्ण वार्ताकार के रूप में देखता है।

तालिबान को दशकों तक गुप्त समर्थन देने के बाद अब पाकिस्तान तालिबान को अपने राजनीतिक कंधों पर उठाकर खुलकर सामने आ गया है। रावलपिंडी दुनिया को बता रहा है कि तालिबान बदल गया है और इसका उद्देश्य किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाना है।

हालाँकि, यह एक उच्च-जोखिम वाले जुआ की तरह, जिसमें विफलता की संभावना बहुत बड़ी है। यदि तालिबान अंतरराष्ट्रीय मांगों को पूरा करता है, तो यह बिल्कुल हमारे सोच के विपरीत होगा। इसके अलावा, पाकिस्तानी सेना कभी भी जोखिम लेने से नहीं हिचकिचाती - हालांकि, उसकी सफलता का रिकॉर्ड खराब है।

व्यापक धारणा के विपरीत, भारत कभी भी अफगानिस्तान में पाकिस्तान के साथ सामरिक प्रतिस्पर्धा में नहीं रहा है। इसे अफगानिस्तान तक भारत की प्रत्यक्ष भौगोलिक पहुंच की कमी ने भी सुनिश्चित किया है। भौगोलिक पहुंच भी एक कारण है कि क्यों रावलपिंडी और दिल्ली अफगानिस्तान के प्रति अलग-अलग रणनीतियां अपनाते हैं।

पाकिस्तान की आगे की नीति काबुल में "दोस्ताना सरकार" के नाम पर अफगानिस्तान पर राजनीतिक प्रभुत्व चाहती है। दिल्ली की रणनीति रावलपिंडी की तुलना में काबुल की स्वायत्तता को मजबूत करने और अफगानिस्तान के आर्थिक आधुनिकीकरण को सुविधाजनक बनाने का प्रयास करती है। यदि रावलपिंडी की आधिपत्य की तलाश अफगानों को पाकिस्तान से नाराज़ करती है, तो अफगान संप्रभुता के लिए दिल्ली का समर्थन भारत का हमेशा स्वागत करता है।

भारत जिन अफगान मूल्यों का समर्थन करता है - राष्ट्रवाद, संप्रभुता और स्वायत्तता - शासन की प्रकृति के बावजूद, काबुल में कायम रहेगा। सामरिक धैर्य के साथ अफगान लोगों के लिए राजनीतिक सहानुभूति और एक सक्रिय जुड़ाव दिल्ली को काबुल के आंतरिक और बाहरी विकास में प्रासंगिक बनाए रखेगा।

1990 के दशक में, पाकिस्तान और तालिबान के पास काबुल के भविष्य को आकार देने के लिए एक स्वतंत्र शक्ति थी क्योंकि दुनिया ने सोवियत सैनिकों के हटने के बाद अफगानिस्तान से मुंह मोड़ लिया था। इस बार दुनिया तालिबान के तहत अफगानिस्तान की आंतरिक और बाहरी नीतियों से बहुत चिंतित है। इससे दिल्ली को अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए 1990 के दशक की तुलना में कहीं अधिक जगह मिलती है।