Aug. 4, 2021

Book Review

By

Manikant Singh

प्रिय अभ्यर्थियों!

इतिहास अन्य विषयों की तरह एक सामाजिक विज्ञान है। अतः इसे भी पुनर्लेखन एवं पुनर्मूल्यांकन की जरूरत पड़ती है। कुछ लोग भूलवश ऐसा समझते हैं कि यह एक स्थिर अथवा रूका हुआ विषय है क्योंकि इसमें अतीत का अध्ययन किया जाता है, परंतु यह मिथ्या धारणा है। भले ही मुद्दा अतीत का हो, परंतु वर्तमान की जरूरत के अनुकूल उसकी व्याख्या बदलती रहती है। फिर इतिहास विषय का अच्छा खासा भाग समकालीन इतिहास का होता है। समकालीन इतिहास का यह भाग प्रत्यक्ष रूप से अन्य सामाजिक विज्ञान से भी जुड़ा होता है। अतः अन्य सामाजिक विज्ञान की तरह इसकी व्याख्या भी बदलती रहती है।

इतिहास की व्याख्या से संबंधित अद्यतन विचारों के ज्ञान के लिए नवीन शोधों पर, जो विभिन्न पुस्तकों, अभिलेखों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, नजर रखनी पड़ती है। मणिकांत सर के निर्देशन में ‘द स्टडी’इस बात के लिए प्रयासरत है कि इतिहास विषय में अभ्यर्थियों को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त हो। अतः ‘द स्टडी’ की वेबसाइट पर इतिहास एवं अन्य सामाजिक विज्ञान से संबंधित नवीन पुस्तकों की समीक्षा संक्षिप्त परंतु नियमित रूप में प्रदान की जाती रहेगी। अभ्यर्थी इस ज्ञान का उपयोग ‘वैकल्पिक विषय’, ‘सामान्य अध्ययन के पत्र’ तथा ‘निबंध’ के पत्र में भी उपयोग कर सकते हैं। कोई भी महत्वपूर्ण पुस्तक किसी भी विषय पर एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करती है। अतः उसका उचित उपयोग उत्तर-लेखन के स्तर एवं गुणवत्ता को बढ़ाकर बेहतर अंक सुनिश्चित कर सकता है।

भारतीय पुस्तक समीक्षा की योजना समकालीन इतिहास से आरंभ करना उचित होगा क्योंकि यह भाग वैकल्पिक विषय के साथ-साथ सामान्य अध्ययन के प्रश्न-पत्र में भी काफी उपयोगी है। वैकल्पिक विषय में इस भाग से एक-से-दो प्रश्न पूछे जाते हैं परंतु मुख्य परीक्षा में सामान्य अध्ययन के प्रथम पत्र में लगभग 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा इसी भाग से होता है। सबसे बढ़कर सामान्य अध्ययन में इसके प्रत्यक्ष योगदान की तुलना में अप्रत्यक्ष योगदान और भी अधिक महत्वपूर्ण है। स्वातंत्र्योत्तर भारत का इतिहास भारत में राष्ट्रवाद की प्रक्रिया से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है। यह वह काल है जब भारत एक संविधान के माध्यम से एक औपनिवेशिक समाज से प्रजातांत्रिक समाज में परिवर्तित हुआ। आर्थिक क्षेत्र में औपनिवेशिक नीति के प्रभाव को निर्मूल करते हुए राष्ट्रीय हित में आर्थिक नीति आरंभ की गई। अतः आर्थिक आयोजन तथा नेहरूवादी आर्थिक मॉडल अस्तित्व में आए। इससे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी। इसलिए समकालीन भारत का इतिहास ‘भारतीय अर्थव्यवस्था’, ‘भारतीय संविधान एवं राजनीति’ तथा ‘भारत एवं विश्व’ जैसे खंडों को समझने की कुंजी सिद्ध हो सकती है। संविधान को समझने के लिए उस राजनीतिक वातावरण को समझना आवश्यक है जिससे संविधान का निर्माण हुआ था। साथ ही, मध्य एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ अन्य देशों में संविधान निर्माण की गतिविधियों को समझना अधिक उपयोगी हो सकता है। उसी तरह नेहरूवादी आर्थिक मॉडल को समझने के पश्चात् ही वर्तमान नव-उदारवादी आर्थिक नीति को समझा जा सकता है। फिर भारत की विदेश नीति की आधारशिला भी इसी काल में निर्मित हुई।

समकालीन भारत के इतिहास पर कुछ पुस्तकें पहले से ही बाजार में उपलब्ध हैं तथा कुछ पुस्तकें हाल में प्रकाशित हुई हैं। आगे हम इन पुस्तकों का सर्वेक्षण करते हैं तो निम्नलिखित पुस्तकें वर्णन की योग्यता रखती है। 1990 में पॉल ब्रास के द्वारा ‘Politics of India* का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक की काफी सराहना हुई थी परंतु यह पुस्तक महज राजनीतिक इतिहास के इर्द-गिर्द घूम रही है। यह पुस्तक अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध है। 1999 में बिपिन चंद्र, आदित्य मुखर्जी तथा मृदुला मुखर्जी के संयुक्त प्रयास से ^India After Independence*  नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसने एकेडेमिक महकमे में सरगर्मी ला दी क्योंकि इसमें स्वतंत्रता के पश्चात् के पाँच दशकों में भारत के समक्ष उपस्थित संभावनाओं तथा चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की गई। जैसाकि लेखक ने दावा किया है कि यह उनकी प्रथम पुस्तक  ^India's struggle for Freedom*  की पूरक थी। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रथम पुस्तक की तरह इस दूसरी पुस्तक का भी हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है। यह दूसरी बात है कि छात्रों के बीच दूसरी पुस्तक को उतनी लोकप्रियता नहीं मिल सकी जितनी पहली पुस्तक को क्योंकि छात्र इस तथ्य को आसानी से स्वीकार नहीं कर सके कि समकालीन भी इतिहास का विषय हो सकता है।

इस पुस्तक मे कुल 38 चैप्टर हैं। पहला टॉपिक परिचयात्मक है तथा अंतिम टॉपिक है नई सहस्राब्दी-उपलब्धियाँ,  समस्याएँ तथा संभावनाएँ। मध्यवर्ती टॉपिक में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक विकास की चुनौतियों एवं संभावनाओं पर प्रकाश डाला गया है। यह पुस्तक बेहद उपयोगी सिद्ध हुई तथा सिविल सेवा परीक्षा के प्रश्न पत्रों को भी प्रभावित करती रही। हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए यह पुस्तक इसलिए अत्यधिक उपयोगी है क्योंकि यह एक मात्र स्तरीय पुस्तक है जिसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। यद्यपि यह सही है कि इस पुस्तक में थोड़ा नेहरू एवं कांग्रेस के पक्ष में वैचारिक झुकाव दिखाया गया है, परंतु यह भी सही है कि समकालीन विषय पर काम करने वाले विद्वानों के लिए वैचारिक पूर्वाग्रह से बचना अत्यधिक कठिन हो जाता है।

इस विषय पर एक पुस्तक 2010 में प्रकाशित हुई। इसके लेखक वी. कृष्णा अनन्थ हैं तथा पुस्तक का नाम ‘India Since Independence’ है परंतु इसका हिन्दी संस्करण उपलब्ध नही है। यह मुख्य रूप से स्वतंत्रता के पश्चात् के राजनीतिक इतिहास पर केन्द्रित है। इस पुस्तक में जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी से लेकर राजीव गाँधी एवं विश्वनाथ प्रताप सिंह तक कांग्रेस के उत्थान-पतन का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है। इसके द्वारा भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयतावाद का उभार तथा क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका को बड़े ही दिलचस्प रूप में प्रस्तुत किया गया है। फिर भी परीक्षा के दृष्टिकोण से इसमें तीन बिन्दु ही महत्वपूर्ण हो सकते हैं -प्रथम, 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारतीय राजनीति में विचारधारा का विकास, दूसरे, भारतीय राजनीति में गाँधी का उद्भव तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में पूँजीपति वर्ग की भूमिका।  

इस श्रृखंला में एक महत्वपूर्ण पुस्तक है रामचन्द्र गुहा के द्वारा लिखित ‘इण्डिया आफ्टर गाँधी’। रामचन्द्र गुहा बंगलोर में निवास करते हैं तथा लेखक के रूप में उनकी ग्लोबल पहचान बन चुकी है। वे अपने लेखन में उदारवाद-व्यक्तिवाद पर समर्पित रहे हैं। इसलिए अधिकतर वे मार्क्सवादी लेखकों की आलोचना के शिकार रहे हैं। जैसाकि उन्होंने स्वयं दावा किया है कि यह पुस्तक उनके लेखकीय जीवन की उपलब्धि है। इस पुस्तक में उन्होंने विस्तार से स्वतंत्रता के पश्चात् के छः दशकों  के विकास पर दृष्टिपात किया है। फिर जब इसके सात दशक पूरे हुए तो उन्होंने फिर एक दशक आगे के इतिहास को जोड़कर 2017 में उसे अद्यतन आलेख बना दिया है। यह पुस्तक आकार एवं मुद्दों के चयन की दृष्टि  से विशालकाय आकार ग्रहण कर चुकी है। स्वतंत्रता के शीघ्र बाद गुहा ने भारतीय राष्ट्रवाद-निर्माण का अध्ययन करते हुए भारत की सांस्कृतिक नीति को सफल माना है तथा यह दर्शाने का प्रयास किया है कि ‘राजभाषा एवं भाषायी आधार पर प्रांतों का गठन एक बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय था क्योंकि भाषायी नीति पर विफ़ल होने के कारण सोवियत रूस विघटित हो गया, पाकिस्तान विभाजित हो गया, जबकि श्रीलंका गृहयुद्ध में फँस गया’। फिर स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में प्रजातांत्रिक संरचनाओं की सफलता का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने भारत को 50-50 प्रजातंत्र का नाम दिया अर्थात उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अपनी राजनीतिक संस्कृति में भारत प्रजातांत्रिक नहीं हो सका है क्योंकि वर्तमान में ‘नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह’की जो जुगलबंदी है पीछे इंदिरा-संजय की जुगलबंदी से बेहतर नहीं है, परंतु दूसरी तरफ वे स्वीकार करते हैं कि आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में भारत के प्रजातंत्र की प्रगति हुई है। हम इस तथ्य को नकार नहीं सकते कि आर्थिक उदारीकरण तथा सूचना प्राद्यौगिकी ने आर्थिक -सामाजिक ढाँचे में निश्चय ही परिवर्तन ला दिया है। इसके कारण आर्थिक-सामाजिक सशक्तीकरण हुआ। यह मूल्यांकन अभ्यर्थियों के लिए उपयोगी हो सकता है क्योंकि वे सामान्य अध्ययन से निंबध तक कहीं भी इस तर्क का उपयोग कर सकते हैं।

स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास पर एक पुस्तक ‘1950 के पश्चात् भारत’ (India since 1950) प्रकाशित हुआ। इसके संपादक क्रिस्टोफर जेफ्रेलो हैं जो दक्षिण एशिया विशेषकर भारत एवं पाकिस्तान के राजनीतिक एवं क्षेत्रीय मुद्दों के विशेषज्ञ हैं। यह पुस्तक मौलिक रूप में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित हुई थी और इसका अंग्रेजी रूपातंरण 2012 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक का कलेवर काफी बड़ा है तथा इसमे कुल 35 चैप्टर हैं। इसमें कुछ चैप्टर परीक्षा में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं उदाहरण के लिए संघीय व्यवस्था का विकास, जाति व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन, स्वतंत्रता के पश्चात् सम्प्रदायवाद का मुद्दा। इसके माध्यम से अभ्यर्थी नेहरू के काल से यूपीए के काल तक संघीय व्यवस्था में होने वाले निरंतरता एवं परिवर्तन के तत्वों को समझ सकते हैं। उसी प्रकार इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि किस प्रकार चुनावी राजनीति एवं प्रजातांत्रिक संस्थाओं की प्रगति के साथ जाति व्यवस्था कमजोर होने के बजाय मजबूत हुई। उसी तरह सम्प्रदायवाद के विकास का भी अवलोकन किया गया है। परंतु इस पुस्तक का भी हिन्दी रूपातंरण उपलब्ध नहीं है।  

स्वातंत्र्योत्तर भारत पर प्रकाशित पुस्तकों की श्रृंखला में शेखर बंधोपाध्याय की पुस्तक पर विचार करना भी आवश्यक है। इस पुस्तक का नाम है ‘प्लासी से विभाजन तक’ तथा यह मौलिक रूप में 2012 में प्रकाशित हुई थी। परंतु फिर 2015 में बंधोपाध्याय ने इसमें अंतिम भाग के रूप स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास का चैप्टर जोड़ा। यह पुस्तक दो कारणों से उपयोगी है। प्रथम, यह पुस्तक हिन्दी में भी उपलब्ध है। दूसरे, इसने यू.पी.एस.सी. मुख्य परीक्षा के प्रश्न पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है। इसके प्रकाशन वर्ष (2015) में ही एक वाक्य से प्रश्न निकाला गया कि’ 1935 के भारत शासन अधिनियम के बिना 3 वर्षों में भारत के संविधान का निर्माण कठिन होता।‘ यह पुस्तक परीक्षा के लिए बेहद उपयोगी है। इसमे कुछ पन्नों में ही स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास को संक्षिप्त रूप में बाँधने की कोशिश की गई है।

इस श्रृंखला में अन्य पुस्तकों की चर्चा भी आवश्यक है। जैसाकि हम जानते हैं कि 2017 के वर्ष में स्वतंत्रता के सात दशक पूरे हुए। अतः अनेक विद्वान स्वातंत्र्योत्तर भारत के मूल्यांकन के लिए आगे आये। इनमे मुख्य थे मेघनाद देसाई तथा दूसरे ज्ञानेश कुदेशिया। लॉर्ड देशाई लन्दन स्थित भारतीय मूल के अर्थशास्त्री रहे हैं। उन्होंने भारतीय प्रजातंत्र को ‘रायसीना मॉडल’ का नाम दिया तथा उसी नाम से पुस्तक लिखी। उन्होंने यह अवलोकन किया कि किस प्रकार पिछले सात दशकों में ‘ब्रिटिश वेस्ट मिनस्टर माडॅल’ भारतीय ‘रायसीना मॉडल’में ढ़ल गया।

मेघनाद देसाई का अन्तर्देशीय आधार उनके लेखन की ताकत एवं कमजोरी दोनों प्रतीत हाती है। उनकी ताकत है उनका बेबाक लेखन। उदाहरण के लिए, भारत के बहुसांस्कृतिक चरित्र का मूल्यांकन करते हुए वे लिखते हैं कि अपने विशिष्ट चरित्र के बावजूद अगर भारत अपनी एकता और अखंडता को बनाए रख सका, तो इसका एक कारण है इसकी जाति व्यवस्था जिसने पूर्व काल में भारत को जोड़ने वाली शक्ति के रूप में काम किया, तो दूसरा कारण है प्रजातंत्र। वहीं दूसरी तरफ उनकी कमजोरी वहाँ झलकती है जहाँ वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हुए अपना पश्चिमी पूर्वागृह दर्शाते हैं, जब वे लिखते हैं कि स्वतंत्रता के दो दशक के अंदर ही भारतीय प्रजातंत्र के अंतर्गत कई प्रकार के अंतर्विरोध उभरने लगे थे, परंतु 1962 में चीनी युद्ध में भारत की हार ने उन अंतर्विरोधों को सीमित कर भारत को एकता प्रदान की।

वैसे तो इस पुस्तक में कुल सात चैप्टर हैं, पर भारतीय अर्थव्यवस्था से संबंधित टॉपिक अधिक दिलचस्प हैं तथा उसका कारण है उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि। इन्होंने नेहरूवादी आर्थिक मॉडल पर तीव्र प्रहार किया। इनके अनुसार सोवियत रूस के प्रभाव में तथा पी. सी. महालानोबिस के निर्देशन में भारत ने दो क्षेत्रक मॉडल (पूँजीगत उद्योग एवं उपभोक्ता संबंधी उद्योग) को अपनाया। यह मॉडल मार्क्स की पुस्तक ‘कैपिटल’ से लिया गया था। इसके अनुसार औद्योगिकीकरण की दिशा में बढ़ने के लिए पूंजीगत उद्योग (Capital goods industries) में निवेश किया जाना चाहिए। पूँजीगत उद्योग दूसरी पीढ़ी  के उद्योग अथवा उपभोक्ता संबंधी उद्योग के निवेश के रूप में काम करेंगे। फिर उपभोक्ता संबंधी उद्योगों का विस्तार होगा। अतः उसका नारा था मशीन के लिए मशीन का उत्पादन। देसाई ने इस रणनीति की आलोचना करते हुए है कहा कि अगर सोवियत रूस ने यह रणनीति अपनाई तो इसका कारण था सोवियत रूस को मशीन प्राप्ति में कठिनाईयाँ क्योंकि पूँजीवादी देश उसके साथ सहयोग नहीं करते, परंतु भारत को ऐसी कौन-सी मजबूरी थी? भारत, जापान एवं कोरिया की तरह अंतर्राष्ट्रीय बाजार से मशीन खरीद सकता था। फिर भारत ने यह रणनीति क्यों अपनाई? उनके विचार में भारत के विकास की रणनीति की विफलता रही अपना अधिकांश संसाधन पूंजीगत उद्योग की स्थापना में लगाना, जबकि भारत के लिए बेहतर होता कि वह उपभोक्ता संबंधी उद्योगों का विस्तार करता तथा अतिरिक्त निवेश कृषि के क्षेत्र में किया होता। अगर ऐसा होता तो आज भारत कहीं अधिक विकसित होता। देसाई का यह तर्क अभ्यर्थी के लिए उपयोगी हो सकता है तथा किसी भी पत्र में इसका उपयोग किया जा सकता है। फिर भी सामान्यतः पूरी पुस्तक में देसाई की नेहरू-विरोधी एवं नव-उदारवादी आर्थिक नीति के प्रति व्यक्तिगत रूझान व्यक्त हुआ है। युह पुस्तक भी केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध है।  

एक दूसरे लेखक ज्ञानेश कुदेशिया की पुस्तक का नाम है ‘1950 के दशक में भारत’ (India in 1950s)। कुदेशिया सिंगापुर में दक्षिण एशिया के इतिहास में एसोसिएट प्रोफेसर हैं तथा समकालीन मुद्दों के विशेषज्ञ हैं। यह पुस्तक 176 पेज की संक्षिप्त पुस्तक है परंतु कुदेशिया ने गागर में सागर भरने का प्रयास किया। कुल छः चैप्टर में प्रथम तथा दूसरा चैप्टर अत्यधिक दिलचस्प एवं उपयोगी है। प्रथम चैप्टर में उन्होंने भारतीय संविधान पर विभाजन के प्रभाव को दर्शाते हुए दिखाया है कि किस प्रकार संघीय व्यवस्था से लेकर नागरिकता तक सभी प्रावधान विभाजन से प्रभावित हुए। उसी प्रकार दूसरे चैप्टर में उन्होंने देशी राज्यों के विलय पर विस्तार से चर्चा की तथा यह बताया गया कि यह कई चरणों में पूरा हुआ। 1947 में यह प्रक्रिया आरंभ हुई जो 1956 में चलकर पूरी हुई। फिर राज्यों के विलय के भी दो मॉडल थे -प्रथम, ‘स्टैण्ड स्टिल एग्रीमेंट’ यह मॉडल ब्रिटिश पॉलिटिकल डिपार्टमेंट के द्वारा तैयार किया गया था, दूसरे, ‘इन्सट्र्रूमेंट ऑफ एक्सेशन एक्ट’। इसका मॉडल वल्लभ भाई पटेल ने तैयार किया। पहले ने देशी राज्य एवं भारतीय यूनियन के बीच नाम मात्र का संबंध स्थापित किया था वहीं दूसरे ने उनके विलय का रास्ता तैयार कर दिया। यह मुद्दा बहुत ही महत्वपूर्ण है। वर्ष 2017 की  मुख्य परीक्षा इतिहास (वैकल्पिक विषय) दूसरे पत्र में इस मुद्दे को आधार बनाकर एक प्रश्न पूछा गया था।